Shri Ganga Stotram in Sanskrit ( श्री गंगा स्तोत्रं )
Apr 15 2017 0 Comments Tags: Ganga, sanskrit, stotram
Shri Ganga Stotram was composed by Sri Adi Shankaracharya. To Hindus Ganga is not merely a river, She is goddess, She is our mother. According to the Puranas (Holy Scriptures of Hindus), the sight, the name and the touch of Ganga takes away all sins. Ganga has been considered a sacred river since the Vedic age. Though the first Veda – the Rig Veda scarcely mentioned Ganga and considered Saraswati and Indus as holiest of all rivers, the later three Vedas – the Yajur, Sam and Atharva Vedas heavily mention Ganga as a scared river. As per Hindu thoughts, bathing in the river on special occasions causes remission of sins and facilitates the attainment of salvation. It is considered that Ganga bestows blessings of the highest order. On the earth, Ganges or Ganga originates from the Gaumukha, Gangotri glacier in the central Himalayas, located in Uttarakhand state, India. Shri Ganga stotram is hymn in praise of maa Ganga.
गंगा से अलग होकर भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती। गंगा सहस्त्रों वर्षों से अविरल प्रवाहित, भारतीय संस्कृति को युगों से गढ़ती, सभ्यताओं एवं संस्कृतियों को रूप देती, दुःखों एवं सुखों की साक्षी रही है। हमारी श्रद्धा, विश्वास तथा आस्था ने अपने तट पर वासित अध्यात्म एवं योग के अन्वेषियों को आत्म एवं जगत के रहस्यों की , ब्रहमज्ञान की अनुभूति कराई है। इसी से यह मोक्षदायिनी संज्ञा से विभूषित हुई है। दूषित मन, अपराधी मन, विक्षोभित मन इसके सान्निध्य मात्र से पावन, निर्मल और शुद्ध हुए हैं और इसी से इसे पतित पावनी की पदवी मिली। युगों-युगों से प्रवाहित गंगा, भारतीय संस्कृति की धुरी तथा भारतीयों की आस्था का केन्द्र बनी हुई है। गंगा आराधना को समर्पित भावभरी पंक्तियां हैं। इसकी रचना आद्य शंकराचार्य ने की थी। यह स्तोत्र बहुत ही मधुर और लययुक्त है। भक्तिभावपूर्वक इसका पाठ करने से सभी तरह के शाप, ताप नष्ट हो जाते हैं, बुद्धि विमल हो जाती है और व्यक्ति जीवन-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है ।
ll श्रीमच्छनकराचार्य रचित गंगा स्तोत्र ll
देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे त्रिभुवनतारिणि तरल तरंगे।
शंकर मौलिविहारिणि विमले मम मति रास्तां तव पद कमले ॥ १ ॥
भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः ।
नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ २ ॥
हरिपदपाद्यतरंगिणि गंगे हिमविधुमुक्ताधवलतरंगे ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ ३ ॥
तव जलममलं येन निपीतं परमपदं खलु तेन गृहीतम् ।
मातर्गंगे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ ४ ॥
पतितोद्धारिणि जाह्नवि गंगे खंडित गिरिवरमंडित भंगे ।
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये ॥ ५ ॥
कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके ।
पारावारविहारिणि गंगे विमुखयुवति कृततरलापांगे ॥ ६ ॥
तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः पुनरपि जठरे सोपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गंगे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे ॥ ७ ॥
पुनरसदंगे पुण्यतरंगे जय जय जाह्नवि करुणापांगे ।
इंद्रमुकुटमणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥ ८ ॥
रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम् ।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ॥ ९ ॥
अलकानंदे परमानंदे कुरु करुणामयि कातरवंद्ये ।
तव तटनिकटे यस्य निवासः खलु वैकुंठे तस्य निवासः ॥ १० ॥
वरमिह नीरे कमठो मीनः किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।
अथवाश्वपचो मलिनो दीनस्तव न हि दूरे नृपतिकुलीनः ॥ ११ ॥
भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।
गंगास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरो यः स जयति सत्यम् ॥ १२ ॥
येषां हृदये गंगा भक्तिस्तेषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकंता पंझटिकाभिः परमानंदकलितललिताभिः ॥ १३ ॥
गंगास्तोत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।
शंकरसेवक शंकर रचितं पठति सुखीः त्व ॥ १४ ॥
॥ इति श्रीमच्छनकराचार्य विरचितं गङ्गास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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